Sunday, 7 June 2015

Shrinathji,Nathdwara

Nathdwara:-


Nathdwara is a town in Rajasthan state of western India. It is located in the Aravalli hills, on the banks of the Banas River in Rajsamand District, 48 kilometres north-east of Udaipur
 

Shrinathji Mandir

Nathdwara, Rajasthan - 313 301
Phone: +91 02953 233484 ,Fax: +91 02953 232482   

Darshan :

Mangla:-
This is the first darshan of the day. The name Mangla underlines auspiciousness of beginning the day with a glimpse of lord. In winter this darshan takes place before sunrise, while in summer, it is later.

Shringar:-
The next darshana follows the first by hour and is called shringara. Shrinathji is dressed carefully from head to foot, and a garland of flowers is placed around his neck. A Mukhiya holds a mirror in front of him so that he can satisfy himself that, he is well dressed. This is his play hour like that of any other child, and he is offered dry fruits and sweets representing food brought to him by his beloved gopis. This explains why he is called gopivallabha

Gwal:-
Third darshana takes place at the hour when the lord takes his cows to pasture. The Mukhiya of the Gaushala (Cowpen) of Nathdwara visits Shrinathji at this time to inform him that all his Cows are well. He is then offered makhan mishri, a light dish with a milk base. The refreshments offered at gwala darshana have to be light, since the lord is believed to have already eaten the comparatively rich foods offered to him by the gopis earlier. Neither flowers nor his flute are shown during this darshana it is assumed that he will be playing with his cowherd friends.

Rajbhog:-
 The main meal of the day is offered to Shrinathji at Rajabhoga. Vitthalnathji, the son of the founder of Pushti Marga, has planned this as the most elaborate darshana of all. A temple priest ascends to the terrace prior to the darshana and calls out, 'Mala Begi Laiyo!!' (bring the garland quickly). This loud call heard over a wide area, dates back to the time when Shrinathji was at Mount Govardhana. The flower garden of the temple used to be located at Chandra Sarovar, Nathdwara. 'The call for the Garland' is the signal for the darshan to be opened to the crowds waiting to catch a glimpse of the lord. The rhythmic sound of drums is heard, excitement mounts, and the doors are flung open.

Utthapan:- 
During the afternoon, around 3.30 p.m., Shrinathji is aroused from his nap. A Conch is blown, it is time for him to return home with his Cows. The vina is played followed by kirtana. Surdas, the celebrated blind devotee, mystic and poet, is supposed to be the chief singer of this darshana.

Bhog:-
 Sixth darshana of the day takes place an hour after Utthapana. A light meal is served to Shrinathji. A Chhadidara stands guard formally dressed in a Pagha (Turban), a Pataka (Sash) and a Gheradar Jama (A Garment with a Flaring Skirt). He holds a staff and wears a golden kada, anklet. The Chhadidara's function is to inform Swaminiji of Shrinathji's arrival, so that she can obtain his darshana and arrange to milk the Cows.

Aarti:-
Sandhya Aarti is the evening darshana. This darshana takes place at dusk, when krishna use to bring his Cows home from the fields. The predominant mood is matrubhava (motherly love). The fear of any ill effects resulting from his wonderings in the woods and protects from harm.After the day’s exertions, his garments now are light. He is offered his flute so that he can enchant his devotees and his Cowherd friends.

Shayan:-
 Final Darshana of the day commences only after rasoiya boli, when the priest ascends the terrace of the haveli and calls out - Cook, come early the following day. After this, drumming heralds Darshana. Since it is time for Lord to retire, various eatables are offered to Shrinathji. A singer praises lord in his kiratana, which may take form of an expression of a beloved's emotion and is offered to both Shrinathji and Swaminiji. Paan-Beeda (betal leaves with spices) are again offered to him.


About Attack on Nathdwara:

 द्वापर युग में जरासंध और कालयवन ने जिस प्रकार मथुरा पर आक्रमण कर दिया था और उससे बचकर भगवान् श्रीकृष्ण कुछ समय के लिये अन्यत्र चले गये थे एवं शांति होने पर पुनः व्रज लौट आये वैसा का वैसा लीला चरित्र नाथद्वारा में श्रीकृष्ण स्वरूप प्रभु श्रीनाथजी के साथ बना।
 

वि.स. १८३५ में अजमेर मेरवाड़ा के मेरो ने मेवाड पर भयानक आक्रमण किया तथा नृशंस हत्याएं करना प्रारंभ कर दिया। इधर पिंडारियों ने नाथद्वारा में घुसकर लूट खसोट की और धन-जन को हानि पहुँचाई। निरन्तर बढती हुई अशांति के बादल अभी छितरा भी नहीं पाये कि वि.स. १८५८ में दौलतराव सिन्धिया से पराजित होकर जसवन्तराव होल्कर यत्र तत्र भटकता हुआ मेवाड़ भूमि के समीप आ गया। परन्तु सिन्धिया की सेना उसे खोजती हुई नाथद्वारा आ पहुँची। अनवरत युद्धों की विभीषिका के मध्य भी नाथद्वारा का अनुपम वैभव देखकर उन्होने गोस्वामी जी से तीन लाख रूपया मांगा और व्यर्थ का श्रम देकर वसूलने का निरर्थक प्रयास किया। मंदिर की अचल संपति पर भी उसका मन मचल उठा और उसे भी हथियाने की चैष्ठाएँ की जाने लगी। आगत विकट स्थिति को भांपकर प्रभु श्रीनाथजी को सुरक्षित रखने के लिए गो.ति. श्री गिरिधरजी महाराज ने घसियार नामक वीहड़ में नाथद्वारा के समान ही मन्दिर बनवाना प्रारंभ कर दिया और नगर की संकटापन्न स्थिति के बारे में महाराज श्री ने वि.स. १८५७ आषाढ सुदी २ को मेवाड़ महाराणा श्री भीमसिंह को एक पत्र लिखा। प्रभु श्रीनाथजी एवं नगर का जन जीवन संकटग्रस्त देखकर गो.ति. श्री गिरिधर महाराज को मेवाड़ महाराणा ने श्री ठाकुर जी को उदयपुर पधारने की आज्ञा दे दी। भगवत् भक्त महाराणा ने त्वरित ही देलवाडा के राजा कल्याणसिंह झाला, कूंठवा के ठाकुर विजयसिंह जी चूंडावत सांगावत आगर्या के ठाकुर जगतसिंह जेत मालोत, मोई के जागीदार अजीतसिंह भाटी, शाह एकलिंगदास बोल्या तथा जमादार नाथूसिंह को सेना सहित नाथद्वारा की ओर रवाना किया। मेवाड़ की बहादुर सेना ने नाथद्वारा आकर घोर संग्राम किया तथा शत्रुओं को तितर-बितर कर दिया। गो.ति. श्री गिरिधरजी महाराज ने उदयपुर चले जाने में ही अपना हित समझा और वि.स. १८५८ माघ कश्ष्ण १ तद्‌नुसार दिनांक २९ जनवरी १९०२ को प्रभु श्रीनाथजी, श्री नवनीप्रियजी और विट्ठलनाथजी को रत्नालंकारों सहित लेकर महाराज श्री उदयपुर की ओर लेकर चल पडे़। कुछ ही समय में कोठारिया के रावत विजयसिंह चौहान उनके साथ हो लिये। इनका पहला पड़ाव उनवास नामक ग्राम में हुआ। वहां जब सुना की नाथद्वारा में होल्कर की सेना बडा उत्पात मचा रही है तब कोठारिया रावत नगर की रक्षार्थ नाथद्वारा लौट आये। यहां पर होल्कर की सेना ने उन्हे घेर लिया तथा शस्त्र एवं घोड़ा दे देने को विवश किया। कोठारिया रावत ने इसमें अपना अपमान समझा। उन्होने होल्कर की सेना से युद्ध ठान लिया और लड़ते- लड़ते वीरगति को प्राप्त किया।
प्रभु श्रीनाथजी उदयपुर की सीमा में आगे बढ़ने लगे। मेवाड महाराणा ने घसियार में प्रभु श्रीनाथजी व अन्य स्वरूपों की अगवानी की लेकिन उस समय तक घसियार का मंदिर निर्माणाधीन था। अतः मेवाड़ महाराणा प्रभु को लेकर उदयपुर पधारे।
उदयपुर में प्रभु का दिव्य स्वागत :- उस समय उदयपुर मेवाड़ की सुप्रसिद्ध राजधानी थी। भारत के वैभवशली नगरों में इसकी गणना होती थी। जिसके चारों ओर सुन्दर-सुन्दर जलाश्य थे। उनके किनारे हरे-भरे उपवन लहरा रहे थे। वृक्ष फल-फूलों से लदे हुए थे। उन पर विविध प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे। हिरण चौकडी भरते स्पष्ट दिखाई देते थे। दूसरी ओर नगर की सम्पन्नता भी वर्णनातीत थी। बडी-बडी अटारियां ,बाजार, अन्न के गोदाम, घी तेल के कुंड ,सभा भवन, बडे-बडे गोपुर तथा चार दिवारियों से यह नगर अत्यन्त ही शोभा पर था। अस्तबल घोडो से भरे हुए थे तथा गज शाला में अनेक मदमस्त हाथी सुशोभित हो रहे थे।
जैसे ही प्रभु श्रीनाथजी के शुभागमन की चर्चा इस नगर में फैली वैसे ही राजप्रसादों के गगनचुम्बी शिखरों पर चमकते स्वर्ण कलशों को स्वच्छ कर दिया गया और उन पर विचित्र झांडियां फहरा दी गई। कितने ही दिनों पूर्व से ही नरनारियों ने प्रभु के आगमन की खुशी में घरबारों को लीपापोता तथा गृहद्वारों को आम्र तथा आशा पल्लवों से सजा दिया। नगर में बड़े-बड़े दरवाजे बनाये गये तथा रंग बिरंगी पताकाओं की सैकड़ो, वन्दनवारों से प्रधान मार्गो को सुशोभित कर दिया गया। नगर के राजपथ, गलियों और चौराहे झाड़ बुहारकर साफ कर दिये और उन पर निर्मल जल का छिड़काव कर दिया गया। प्रत्येक घर में उस दिन आनन्द का स्रोत फूट पड़ा। लोगो ने नई पौशके पहनी। जगह-जगह पर अगर धूप लगाकर नगर को महका दिया गया। अनेक नरनारी सजधज कर राजमार्ग में एकत्रित हो प्रभु श्रीनाथजी की बाट निहारने लगे। वर्तमान श्रीनाथजी मंदिर से लेकर राजमार्ग प्रमुख चौक और नगर से बाहर तक आपारन समूह लालायित था। सुहागिन नारियों ने किनारीदार कसुमल साड़ियों को पहिना, हाथो में कंकड तथा मंगलसूत्र से अपने आप को साजा लिया। पुरूष धोती, लम्बी अंगरखी पहिने हुये थे। उनके मस्तक पर रंग बिरंगी पगड़िया व मोठ़डे देखते ही बनते थे। ऐसे ही नौजवानों के सुगठित शरीर पर नाना प्रकार के उपरणे लहरा रहे थे उनमें भी कुछ लोगों ने अपने पैरों मे सोने के लंगर पहिन रखे थे। वृद्ध मनुष्यों की रजतधवल दाढ़ियां अत्यन्त ही गौरवान्वित हो रही थी। उस महोत्सव में सम्मिलित होने वाले अनेक रावराणा शोभायात्रा में यथावत् अपने-अपने स्थान पर खड़े थे जैसे ही प्रभु के आगमन का बिगुल बजा, सब लोग सतर्क हो गये और अपने हाथों में पुष्पगुच्छो को ले लिया।
महाराणा भीमसिंह पहले से ही श्रीनाथप्रभु के स्वागतार्थ नगर के प्रमुख द्वार पर खडे़ थे। शोभायात्रा के अग्रभाग में अश्व पर नगाढा बज रहा था। उसके पीछे हाथी पर उदयपुर महाराणा का निशान था और उसके पीछे कई सुसज्जित मदमाते हाथी अपनी अल्हड़ चाल से चल रहे थे। इनके पीछे सोने व चाँदी के आभूषणों से युक्त इठलाते घोड़े और इनके बाद महाराणा के अनेक शस्त्रधारी अद्वितीय योद्वा एक-एक कदम पंक्तिबद्ध बढा रहे थें। उदयपुर का प्रसिद्ध बाजा इस समय अपनी मधुर आवाज से सभी दर्शकों को आत्मविभोर किए हुए था। इसके पश्चात् गोपाल निशान को लिये ब्रजवासी अश्व पर सवार था। इनके पीछे गोस्वामी जी की सेना शनेःशने अपने कदम बढ़ा रही थी। इसके पश्चात् अरबी ताशे बजाने वालों का समूह बाजे बजाता चल रहा था। तदनन्तर छडी़दार ,समाधानी तथा मंदिर के अनेक कर्मचारी छडी़ लिए हुए आगे बढ रहे थें। इनके पीछे गोस्वामी बालक दिखलाई पड़ते थे। महाराज श्री गिरधरजी के मुख पर उस समय एक दिव्य चमक थी। गोस्वामी बालकों के साथ ही सच्चिदानन्द घन प्रभु श्रीनाथजी का अनुपम रथ चल रहा था और कईं सेवक उस पर चँवर आदि डुला रहे थे।
जैसे ही श्रीनाथजी का रथ महाराणा को दिखलाई पड़ा वे नतमस्तक हो गये। वे बार-बार प्रभु को वन्दन करने लगे। जय जयकार की तुमूल हर्ष की ध्वनी से सारा नगर निनादित हो उठा। महाराणा सही समय पर रथ के साथ सम्मिलित हो गये और स्वयं श्रीजी पर चँवर डुलाने लगे। श्रीजी के रथ के पीछे श्रीनवनीत प्रियजी और पीछे श्री विट्ठलेशरायजी के रथ चल रहे थे। इनके पीछे नाथद्वारा नगर की असंखय महिलाएँ चल रही थी। उनके धूल घुसरित मुखडे पर पसीने की बूंदे दिखलाई पड रही थी। उनमें से कई ने मस्तक पर टोकरे ले रखे थे। अनेको की गोदी में कई नन्हे-नन्हे बच्चे किल्लोल कर रहे थे। महिलाओं के बाद नाथद्वारा के कई संभ्रान्त नागरिक चल रहे थे। इनके बाद अनेक बैलगाडियाँ थी जिन पर सामान लदा हुआ था। शोभायात्रा में सबसे पीछे महाराज श्री के नगर रक्षक सांडनी सवारों की कतारे चौकन्नी होकर धीरे-धीरे आगे बढ रही थी। इस प्रकार ''श्री गिरिराज धरण की जय'' उद्गोष के साथ प्रभु का रथ अनवरत अग्रसर होता जा रहा था। सड़के, छते तथा दुकाने दर्शनार्थियों से खचाखच भरी थी। लोग जय जयकार करते हुए पुष्प् वर्षा कर रहे थे। ऐसे परमानन्दमय अवसर पर कुछ भक्त आँखों में प्रेमाश्रु बहाकर प्रभु का स्तवन करने लगे और कुछ आनन्दोन्मत होकर नाचने लग गये।
जैसे ही श्री गोवर्धन धरण प्रभु श्रीनाथजी का रथ राजप्रसाद के समीप पहुँचा, मेवाड की महारानियों ने प्रभु श्रीनाथजी का स्वागत किया। उस समय वे अद्भुत रूप लावण्य से सम्पन्न और बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से सुसज्जित थी। राजमहिषी ने मुट्ठि भर-भरकर प्रभु के रथ पर मुद्राएं उछाली और रजत कनक पुष्पों की वर्षा की। इस प्रकार मन्थर गति से यह शोभायात्रा सात घंटो तक चलकर वर्तमान श्रीनाथजी मंदिर तक पहुँची । बडी़ धूमधाम के साथ रथ की आरती उतारी गई और रथ में ही श्रीकृष्णस्वरूप प्रभु श्रीनाथजी के दर्शन कराये गये। जिस समय प्रभु श्रीनाथजी के दर्शन खुले उस समय भक्तों में अपार अहाद देखते ही बनता था। प्रभु श्रीनाथजी के उदयपुर पहुँचने पर एक लघु मंदिर में प्रभु बिराजे। उसके बाद वहां भी नाथद्वारा के समान ही मंदिर का निर्माण कार्य कराया गया। श्री नवनीत प्रिय प्रभु श्रीनाथ प्रभु के साथ थे। श्री विट्ठलेशराय अपने अलग मंदिर में प्रतिष्ठापित हुए। प्रभु के साथ यहां फाल्गुन चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रप्रद, आद्गिवन एवं कार्तिक के दीपावली व अन्नकूट आदि के उत्सव सम्पन्न किये। परन्तु सिन्धियां की सेना धीरे-धीरे बढते हुए यहां भी आ पहुँची। महाराणा भीमसिंह ने उसे पुनः लौट जाने तथा उदयपुर को कोई क्षति नहीं पहुँचाने के लिये कर रूप में अपनी राजरानियों के मूल्यवान हीरे-जवाहरात युक्त आभूषण भी दे दिये। ऊपर से तीन लाख रूपया और दिया। फिर भी उसकी अर्थ पिपासा शान्त नहीं हुई और उसने मेवाड की प्रजा को लूटा। महाराणा के शूखीर योद्वा उनसे भीड़ गये। देखते ही देखते युद्ध के प्रलयंकारी बादल दिखलाई पड़े । ऐसी विषमावस्था में प्रभु के निवास स्थान के लिये एकमात्र घसियार ही उपयुक्त स्थान दिखलाई पड़ा । उदयपुर में प्रभु श्रीनाथजी दस माह और नौ दिन बिराजे। तत्पश्चात् घसियार में सुदृढ़ दुर्गनुमा मंदिर बन जाने के बाद प्रभु श्रीनाथजी उस ओर रवाना हो गये।
घसियार प्रस्थान :- घसियार सुन्दर पर्वतीय उपत्यका में हरितिमा लिये हुए एक भयानक स्थान था। यकायक यहां किसी का पहुँचना सहज नही था तो दुभर अवश्य था। गो.ति. श्री गिरधरजी महाराज ने पन्द्रह लाख रूपया लगाकर जो प्रभु श्रीनाथजी का मंदिर बनवाया अब तो वह पूर्णरूपेण निर्मित हो चुका था। अतः प्रभु को वहीं पधराना उचित समझा गया। नन्दनन्दन प्रभु श्रीनाथजी अब घसियार पधारे और अपने दुर्गाकार मंदिर में बिराजमान हुए। देखते ही देखते घसियार नाथद्वारा हो गया। मंदिर के चारो ओर गली मोहल्ले तथा चौराहे बनने लगे। नित नये आनन्द व मनोरथों की वहां झडी लगने लग गई। जंगल में मंगल के नगाडे़ बज उठे।
घसियार से पुनः नाथद्वारा आगमन :- वहां घसियार का जलवायु सभी को अनुकूल नहीं हुआ। वहा का पहाड़ी पानी प्रभु श्रीनाथजी की सेवा योग्य नही था। यहाँ तक कि विपरित वातावरण से आचार्य ति. श्री गिरधरजी महाराज के तीन पुत्र कुछ ही वर्षो में परलोक सिधार गये। अतः महाराजश्री ने अपने चतुर्थ पुत्र श्री दाऊजी को प्रभु श्रीनाथजी के श्रीचरणों में डाल दिया। करूणावरूणालय प्रभु श्रीनाथजी ने तुरन्त ही अपना दायाँ श्रीहस्त दाऊजी के ऊपर रख दिया और अभय वर दिया। इसके साथ ही पुनः नाथद्वारा कूच करने की आज्ञा प्रदान की। इस प्रकार एक वर्ष उदयपुर और पांच वर्ष घसियार वास करने के पश्चात् वि.सं. १९६४ में प्रभु श्रीनाथजी दलबल सहित अनेक भक्तों को साथ लेकर युद्ध भूमि हल्दीघाटी के अरण्य मार्ग को पारकर खमनोर होते हुए नाथद्वारा आ पहुँचे। लेकिन श्री विट्ठलनाथजी प्रभु श्रीनाथजी संग नही पधारे। वे उदयपुर से सीधे वि.सं. १८५८ में कोटा पधार गये। जब गो.ति. श्री दाऊजी महाराज ने वि.सं. १८७८ में प्रभु श्रीनाथजी में द्वितीय सप्तस्वरूपोत्सव किया तब कोटा से पुनः श्री विट्ठलेशरायजी नाथद्वारा आये और अपने मंदिर में बिराजे तभी से अभी तक आप इस नगर को पावन किये हुए है।प्रभु श्रीनाथजी पुनः छः वर्षो बाद नाथद्वारा पधारे उस समय तक इस नगर की ऐसी दुर्दशा हो गई कि लोग अपने पुराने मकानों तक को नहीं पहचान सके। तिलकायत महाराज का भवन मात्र भग्नावशेष रह गया। परन्तु ऐसे समय में प्रभु श्रीनाथजी का जीर्ण शीर्ण मंदिर सभी भक्तों के लिए परम वंदनीय था। जिस दिन से प्रभु श्रीनाथजी ने पुनः पदार्पण किया। उसी दिन से अनवरत इस वसुधा पर सुधा वर्षण होने लगा है।
महाराणा भीमसिंह ने जब देखा कि प्रभु श्रीनाथजी आनन्दपूर्वक नाथद्वारा पधार गये है और पुनः उसी मंदिर में बिराजे है, उनका हृदय प्रसन्नता के मारे बाँसो उछल पड़ा। क्योकि प्रभु के घसियार वास करने से महाराणा काफी चिन्तित हो गये थे। अतः शुभवेला देख महाराणा भीमसिंह नाथद्वारा आये और प्रभु श्रीनाथजी के दर्शन कर गद् गद हो गये। इसके साथ ही श्रीजी में अनेक मनोरथ करवाकर सालोर, घसियार, व्याल, चेनपुरिया, चरवोटिया, भोजपुरिया, टांटोल, बाँसोल, होली, जीरण, देपुर छोटा, सिसोदिया, ब्राह्मणों का खेडा़ तथा माँडलगढ का मंदिर आदि गाँव प्रभु को भेंट कर प्रभु श्री गोवर्धनधरण श्रीनाथजी के प्रति अपनी अटूट श्रद्धाभक्ति का परिचय दिया।

Place to visit

 Lalbag     



Giriraj Parikrama
 
Shrinath Gaushala
 
Bhool Bhulaiya (Vrindavan bag)
 
Ganesh Tekari
 

1 comment: